नहीं मालूम
गठरी में सब बांध
क्यूं चला आया था मीलों दूर पैदल ही
जिसे देखता ,वही समझाता
कोरोना आया है, क्या मालूम बचिहो के नाहि
अच्छा रहिए कि अपनो के बीच रहिबे।
और ई ऊप्पर वाला समझेजाने
बिन सोच बिचारे सबके साथ
पहुंच ही गया था सही सलामत आपन ठौर।
कितने पुलिसिया नाको को पार करके
ई जो बीमारी मोदी जेब में भरके लावा रहे
उसपे छिड़काव कराइके
मुंह से छींका उतार कर
मड़ैया पै चौड़ा हुआ था आंगन में।
पांच दस दिन बीत चुके तो ,
पूरे गांव में चक्कर मारकर, टूटी चप्पल सिलवा
एक दो खैनी गुटका खरीदकर
बस आंगन में कदम रक्खा ही था,
पानी की ठंडक पांवों में पूरी तरह महसूस हो
उल्टे पांव दौड़ पड़ा था वो
बेतहाशा दौड़ते दिमाग सुन्न हो चला था
और सूखी ज़ुबान फड़फड़ा रही थी-
बाढ़
पानी
घर
कोरोना
आपन लोग
आपन गांव…..
और
जब तक मुड़कर देखने की हिम्मत करता
पानी
पानी और पानी और पानी
और पानी
बस पानी ही पानी और कुछ भी नहीं
बचे हैं तो –
उसकी जेब में सहेजे खैनी- गुटका
और आज ही सिलवाई चप्पल
जो जरुरी हैं पुनः प्रवास के लिए।