मां!
जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ रही है
लगता है
जैसे कि तुम्हारा अक्स
मुझमें उतरता जा रहा है पूरा का पूरा।
कितनी बार मैं वही कहती हूं
जो कहती थी तुम
और अनसुना करती थी मैं
चाहे -अनचाहे।
आज जब बच्चे करते हैं बहस या
कहते हैं मुझे नहीं आता है समझ
सोचती हूं कितनी अकिंचन थी तुम
कितनी शांत और अपरिग्रही।
तुम्हारे अक्स में मेरा चेहरा है
या मेरे चेहरे में तुम उतरती हो नहीं मालूम
पर मुझे जब गुस्सा आता है
या कभी कभी
होती है अपनेआप से बेरुखी
तुम एकटक निहारते हुए मुझे
आंखों आंखों में टोकती हो उसी तरह।
समझकर अपनी भूल को
मैं गले लग जाती हूं तुम्हारे
और भूल जाती हूं
तुम्हें गुजरे तो अरसा बीत चुका
पर नहीं बीत सकता है तुम्हारा अहसास
मां, तुम रहोगी मेरे साथ ही
अब तुम नहीं ,तुम्हारा अक्स बोलता है मुझमें।
प्रभाकिरण जैन
सितम्बर २०२०