दहलीज पर ठिठकी गर्व
भरी आंखों पर फ़िदा हूं मैं
जो गीली हैं गहरे तक
पर गर्व से भरी हैं
जिनकी कोर पे ठहरे हुए हैं मोती
और खुली सीप में दीख रहा है
लहराता तिरंगा
जिसमें भरी है गंध
शहीद हुए अपने की।
ढंपे किवाड़ों के बीच छूट गई झिर्री सी
खुली हैं अपलक
खुली हैं बेख़ौफ़, बेधड़क।
नहीं लुटाएंगी वो
कोर पे अटके मोती
न ही फीकी पड़ने देंगी इनकी चमक
क्यूंकि ,
जिनकी शहादत से लदकद गंध से
महकता तिरंगा
सरहद पर मुस्तैद
हर एक को महका रहा है
ये मोती थाति हैं उन्हीं की।
जो उनकी शहादत ने
भेजी थी उपहार में
उसी क्षण ,
जब अंतिम श्वास लेते
उसकी आंखों में कौंध गई थीं-
एक जोड़ी
हंसती हुई गर्वीली
गहरे तक गीली
बौराई ,नि:शब्द आंखें।